Essay on Gandhi Jayanti | Speech on Gandhi Jayanti | गांधी जयंती पर भाषण
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जयंती मनाने के लिए भारत हर साल 2 अक्टूबर को गांधी जयंती मनाता है। 2 अक्टूबर 2024 को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 155वीं जयंती समारोह है। उन्हें राष्ट्रपिता की उपाधि एक अन्य प्रमुख भारतीय स्वतंत्रता सेनानी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा दी गई थी। गांधी जयंती भारत में हासिल की गई महान उपलब्धियों, गांधी द्वारा भारतीय लोगों के साथ लड़ी गई बड़ी लड़ाइयों और बुराई पर अच्छाई का प्रतिबिंब है। गांधीजी ने न केवल भारत को ईस्ट इंडिया कंपनी के दुष्ट शासन से मुक्त कराया, बल्कि उन्होंने भारतीय समाज के सामाजिक मुद्दों के खिलाफ भी लड़ाई लड़ी। उन्होंने हमें आत्मनिर्भरता, साहस, अहिंसा, सादगी, महिला सशक्तिकरण और शिक्षा की शक्ति सिखाई। देश भर के स्कूल विभिन्न कार्यक्रम आयोजित करते हैं जैसे निबंध प्रतियोगिताएं, भाषण प्रतियोगिताएं, कविता प्रतियोगिताएं, नाटक, पोस्टर बनाने की प्रतियोगिताएं, ड्राइंग और पेंटिंग प्रतियोगिताएं, स्वच्छता या वृक्षारोपण अभियान, आदि।
जीवन परिचय –
मोहनदास करमचंद गाँधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को पोरबंदर, गुजरात के एक सामान्य परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम करमचंद गाँधी एवं उनकी माता का नाम पुतलीबाई था। माता पुतलीबाई धार्मिक स्वभाव की थीं एवं पिता करमचंद बहुत सज्जन थे और इसका गांधीजी के व्यक्तित्व पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा| गाँधीजी ने प्राथमिक और उच्च शिक्षा गुजरात में प्राप्त की। उन्होंने अपने असाधारण कार्यों एवं अहिंसावादी विचारों से केवल भारत देश की नहीं बल्कि पूरे विश्व की सोच बदल दी। 30 जनवरी 1948 को जब गाँधीजी दिल्ली स्थित बिड़ला मंदिर से अपनी संध्या प्रार्थना समाप्त कर बाहर निकल रहे थे, उसी समय नाथूराम गोडसे ने उनके सीने पर ताबड़तोड़ तीन गोलियाँ चलाईं। गोली लगते ही गाँधीजी जमीन पर गिर पड़े। मरते वक्त उन्होंने दो शब्द बोले - हे राम! उनका अंतिम संस्कार यमुना के तट पर किया गया।
महात्मा गांधी की समाधि स्थल का नाम राजघाट है। दिल्ली में यमुना नदी के पश्चिमी किनारे पर महात्मा गांधी की समाधि स्थित है। काले संगमरमर से बनी इस समाधि पर उनके अंतिम शब्द हे राम उद्धृत हैं। अब यह एक सुन्दर उद्यान का रूप ले चुका है। यहाँ पर सुन्दर फव्वारे और अनेक प्रकार के पेड़ लगे हुए हैं।
इंग्लैंड में प्रवास और महात्मा गांधी की भारत वापसी
गांधीजी ने अपनी पढ़ाई को गंभीरता से लिया और लंदन विश्वविद्यालय की मैट्रिक परीक्षा देकर अपनी अंग्रेजी और लैटिन भाषा में सुधार करने की कोशिश की। लेकिन, इंग्लैंड में बिताए तीन वर्षों के दौरान, उनकी मुख्य व्यस्तता शैक्षणिक महत्वाकांक्षाओं के बजाय व्यक्तिगत और नैतिक मुद्दों पर थी। राजकोट के आधे-ग्रामीण माहौल से लंदन के महानगरीय जीवन में परिवर्तन उनके लिए आसान नहीं था। जब वह खुद को पश्चिमी खान-पान, पहनावे और शिष्टाचार के अनुरूप ढालने के लिए कठिन संघर्ष कर रहे थे, तो उन्हे अजीब महसूस हो रहा था। उनका शाकाहारवाद उनके लिए लगातार शर्मिंदगी का कारण बन गया; उसके दोस्तों ने उसे चेतावनी दी कि इससे उसकी पढ़ाई के साथ-साथ उसका स्वास्थ्य भी खराब हो जाएगा। सौभाग्य से उन्हें एक शाकाहारी रेस्तरां के साथ-साथ शाकाहार का तर्कसंगत बचाव प्रदान करने वाली एक पुस्तक भी मिली, जो अब से उनके लिए दृढ़ विश्वास का विषय बन गई, न कि केवल उनकी वैष्णव पृष्ठभूमि की विरासत। शाकाहार के प्रति उनके द्वारा विकसित मिशनरी उत्साह ने दयनीय रूप से शर्मीले युवाओं को उनके खोल से बाहर निकालने में मदद की और उन्हें एक नया संतुलन दिया। वह लंदन वेजीटेरियन सोसाइटी की कार्यकारी समिति के सदस्य बने, इसके सम्मेलनों में भाग लिया और इसकी पत्रिका में लेखों का योगदान दिया।
दक्षिण अफ्रीका में ट्रेन यात्रा
दक्षिण अफ्रीका गांधी जी के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। यहां उनका सामना कई असामान्य अनुभव और चुनौतियों के साथ हुआ जिसने गहराई से बापू के जीवन को बदल दिया।
गांधीजी व्यापारी दादा अब्दुल्ला के लिए कानूनी सलाहकार के रूप में सेवा करने के लिए 1893 में डरबन में आए थे। दक्षिण अफ्रीका में बापू के काम नें नाटकीय रूप से उनहें पूरी तरह से उसे बदल दिया, जहॉ उन्हें आमतौर पर काले दक्षिण अफ्रीकी और भारतीयों पर होनेवाले भेदभाव का सामना करना पड़ा। डरबन में एक दिन अदालत में मजिस्ट्रेट नें उनसे पगड़ी हटाने के लिए कहा जिसे गांधी जी ने इनकार कर दिया और अदालत से चले गए।
31 मई 1893 को गांधीजी प्रिटोरिया जा रहे थे, एक गोरे नें प्रथम श्रेणी गाड़ी में उनकी मौजूदगी पर आपत्ति जताई और उन्हें ट्रेन के अंतिम वैन डिब्बे में स्थानांतरित करने के लिए आदेश दिया। गांधीजी, जिनके पास प्रथम श्रेणी का टिकट था, ने इंकार कर दिया, और इसलिए उन्हें पीटरमैरिट्सबर्ग में ट्रेन से बाहर फेंक दिया गया।
स्टेशन के प्रतीक्षालय में सर्दी में रातभर कांपते रहे बापू नें दक्षिण अफ्रीका में ही रहने और भारतीयों एवं अन्य लोगों के खिलाफ नस्लीय भेदभाव से लड़ने के लिए महत्वपूर्ण निर्णय लिया। इसी संघर्ष से उनका अहिंसक प्रतिरोध अपने अद्वितीय संस्करण, ‘सत्याग्रह’ के रूप में उभरा। आज, गांधी जी की एक कांस्य प्रतिमा शहर के केंद्र में चर्च स्ट्रीट पर खड़ी है।
दक्षिण अफ्रीका में इस दूसरी अवधि के दौरान गांधी के जीने के तरीके में आमूल परिवर्तन आया। उन्होंने अपनी इच्छाओं और खर्चों में कमी शुरु की। वो स्वयं अपने धोबी बने, अपने कपड़े खुद इस्त्री की, अपने बालों को खुद काटना सीखा। स्वयं की मदद से संतुष्ट न होकर उन्होंने एक चैरिटेबल अस्पताल में दो घंटे के लिए एक कम्पाउंडर के तौर पर काम किया। उन्होंने नर्सिंग और दाई के काम पर भी किताबें पढ़ीं। 1899 में जब बोर यूद्ध छिड़ा, तब उन्होंने डॉक्टर बूथ की मदद से 1100 भारतीय स्वयंसेवकों का एक एंबूलेंस दल तैयार किया और इसकी सेवायें सरकार को प्रदान की। गांधी के नेतृत्व में इस दल नें महत्वपूर्ण सेवायें दीं। गांधी को सबसे खुशी इस बात से हुई की भारतीयों नें भाइयों के रूप में काम किया और धर्म, जाति या संप्रदाय के पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर एक साथ खतरों का सामना किया
भारत का दौरा
गांधी जनवरी 1915 में भारत लौटे, एक महात्मा, जिसके पास कोई संपत्ति नही थी केवल अपने लोगों की सेवा करने की एक महत्वाकांक्षा के साथ। हालाकि बुद्धिजीवियों ने दक्षिण अफ्रीका में उनके कारनामों के बारे में सुना था, भारत में वे प्रसिद्ध नहीं थे और सामान्य भारतीय “भिखारी के वेश में महान आत्मा” जैसा टैगोर ने बाद में उन्हें बुलाया था, को नहीं जान पाये थे। पहले वर्ष में गांधी ने कान खोलकर और मुँह बंद कर अध्ययन करने के लिए पूरे देश की यात्रा करने का निर्णय किया। पूरे वर्ष घूमने के उपरांत गांधी अहमदाबाद के बाहरी किनारे पर सावरमती नदी के किनारे बस गये जहाँ मई 1915 में उन्होंने एक आश्रम की स्थापना की। इस आश्रम का नाम उन्होंने सत्याग्रह आश्रम रखा।
चम्पारण में सत्याग्रह
उनका पहला सत्याग्रह बिहार के चम्पारण में 1917 में हुआ जहाँ वे सताये हुए नील की खेती करनेवाले मजदूरों के अनुरोध पर पहुँचे। प्रशासन के द्वारा गांधी जी को जिला छोड़ने का आदेश दिया गया और जब उन्होंने मना किया तो शर्मींदा मजिस्ट्रेट ने केस की सुनवाई स्थगित कर दी और बिना जमानत के उन्हें रिहा कर दिया। सत्याग्रह के पहले प्रयोग की सफलता ने गांधी जी की छवि को देश में काफी बढ़ा दिया।
दांडी की नमक यात्रा
मार्च 1930 में नमक पर टैक्स के खिलाफ गांधी नें एक नया सत्याग्रह चलाया। यह 12 मार्च से 6 अप्रैल तक नमक यात्रा के नाम से प्रसिद्ध हुआ जब उन्होंनें स्वयं नमक बनाने के लिए गुजरात के अहमदाबाद से दांडी तक की 388 किलोमीटर (241 मील) की पैदल यात्रा की।
1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के फैलने के साथ ही गांधी जी ने आजादी के लिए अपनी मांग तेज कर दी और अंग्रेजों भारत छोड़ो संकल्प का मसौदा तैयार करने के साथ सत्याग्रह शुरू किया जिसके परिणामस्वरूप अभूतपूर्व पैमाने पर हिंसा और गिरफ्तारी हुई। उन्होंने यह बताते हुए कि उनके आसपास की “आदेशित अराजकता” “असली अराजकता से बुरी थी” यहां तक स्पष्ट किया कि इस बार यदि व्यक्तिगत हिंसा रोकी नहीं गयी तो आंदोलन रोका नही जाएगा। उन्होनें अहिंसा के माध्यम से अनुशासन बनाए रखने के लिए कहा और परम स्वतंत्रता के लिए “करो या मरो” का नारा दिया।
महात्मा गांधी शांति पुरस्कार
भारत सरकार सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ताओं, विश्व के नेताओं एवं नागरिकों को वार्षिक महात्मा गांधी शांति पुरस्कार प्रदान करती है। गैर भारतीय पुरस्कार विजेताओं में नेल्सन मंडेला प्रमुख हैं, जो दक्षिण अफ्रिका में नस्लीय भेदभाव और अलगाव उन्मूलन करने के लिए संघर्ष के नेता रहे हैं। गांधी जी को कभी भी नोबल पुरस्कार नहीं मिला हालाकि उनका नामांकन 1937 से 1948 के बीच पाँच बार हुआ था। जब 1989 में चौदहवें दलाई लामा को यह पुरस्कार दिया गया तब समिति के अध्यक्ष ने इसे "महात्मा गांधी की स्मृति में श्रद्धांजलि" कहा था। महात्मा गांधी को फिल्मों, साहित्य और थिएटर में चित्रित किया गया है।